रविवार, 10 मार्च 2013


मेरी ये रचना समर्पित है, उस वीरांगना को जिसके साहस ने हमें अपने भीतर झांकने और सोचने का मौका दिया की ताकि हम अपने संसार को और सुन्दर बना सकें। 



ऐ पुरुष , पौरुष के नाम पे क्या घिनौना खेल तू खेल रहा ,
कोई नोच रहा तेरे अर्धांग को, तू मूक तमाशा देख रहा ।
क्या नहीं है ताकत तुझमें उठा शस्त्र, और काट दे उस हाथ को,
क्या इतना सम्मान नहीं दे सकता उस साथी के साथ को ।
क्यों भूल जाता है तुझे ख़ुदा ने उसकी रक्षा को बनाया है,
क्या तूने अपने पिता, भाई, पति बनने का कर्तव्य निभाया है।
क्यों उसकी रक्षा सिर्फ इनके वचनों की दासी है,
क्यों उसकी आवाज में तुझे अपनों की आवाज न आती है ।
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क्यूं तेरी नज़रों का तेज घूरकर उन्हें कुम्हलाती हैं,
क्यों तेरे हाथों की ताकत उन्हें मसल जाती हैं ।
वो छिपकर घूमती हैं क्योंकि तेरी नजरें नापाक है,
इसके बाद भी सड़कों पे, शैतानियत घूमती बेबाक है ।
तन्हा रातों को जब उसका साथ, तुझे सूकून दे जाता है,
फिर क्यों ऐसी रातों में तू, उनकी रूह कंपाता है ।
क्यों उसके आंखों के आंसू, तेरा हृदय नहीं पिघलाते,
क्यों उसके करुण क्रंदन तेरी, रुह चीर नहीं पाते ।
क्या इसी दिन के लिए, विधाता ने तुझे रचा है,
क्या थोड़ा शर्म भी तेरी आखों में नहीं बचा है ।
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दूसरों की क्यों सोचें, खुद के भीतर अंधियारा है,
जग में रोशनी की बात ही फांकी, घर ही मेरा कारा है ।
कुछ सपनें, कुछ उम्मीदें, कुछ आस उसने लगाई तुमसे,
क्यों अपने झूठे नशे में, उसमें आग लगाई तुमने ।
क्यों मर्यादाओं की सीमा, उसके लिए ही खींची जाती,
क्या मर्दों की इज्जत कभी, इज्जत ही नहीं कहलाती ।
उनकी आजादी में छिपा अगर समाज में बवाल है,
तो क्यों नहीं ये हमारे, सामर्थ्य पर ही एक सवाल है ।
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अंत में यही कहना चाहूँगा;

क्यों भूल जाता है तू जन्मा, उसके ही दर्द से,
सोच क्या मर्द, मर्द बनता है, औरत के दर्द से ।

शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

जय छत्तीसगढ़

महानदी के पावन धारा बाहत हावे जेन मा
घासीदास बाबा के अमरित बचन निकलिस जिहा ले
राजिम के मेला, तीजन बाई के पंडवानी
मांदर के थाप में होथे करमा अव ददरिया
जेन हर कहिलाथे धान के कटोरा
अड़बड़ अकन खनिज सम्पदा हावे जेकर माटी मा
अतीक सुघ्घर हे हमर छत्तीसगढ़ .

जम्मो संगी मन ला छत्तीसगढ़ स्थापना दिवस के गाडा गाडा बधाई ...............................


बात हा निकले हे मोर संगी गिरजाशंकर के मन लेमैं तो बस एक माध्यम बने हों एला सामने लाय बर

रविवार, 16 अगस्त 2009

स्वाधीनता की पूर्णता


आज भारत को आजाद हुए ६२ साल हो गए हैं। इस दौरान हमने अनेक उपलब्धियां हासिल की और नई ऊँचाइयों को छुआ है। एक सवाल जो हर बार पूछा जाता है वह ये है कि क्या हमने सही मायनों में आजादी हासिल की है? क्या हम वास्तव में स्वाधीन हुए हैं?
मेरा विचार है कि स्वाधीनता कोई एक मंजिल नहीं है बल्कि यह एक रास्ता है, जो हमें अपनी और एक समूह के रूप में समाज की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है। १५ अगस्त १९४७ को हमें अधिकार मिला की हम अपनी इच्छा के अनुसार सरकार बना सकते हैं। अपने निति एवं नियम ख़ुद बना सकते हैं।और यह कम महत्त्वपूर्ण बात नहीं है। क्योंकि आज अगर मैं इस बारे में कुछ कह या लिख पा रहा हूँ तो यह इसी की देन है। पर यह तो पूर्ण स्वाधीन होने की दिशा में एक प्रयास ही था।
कई आलोचक ये कहते हैं कि उस दिन सिर्फ़ नाम बदले गए बाकी सरकारी सिस्टम नहीं बदला। मैं इस बात से काफी हद तक सहमत हूँ। पर साथ ही ये मानता हूँ कि कोई भी बदलाव, वो भी भारत जैसे बड़े देश में कुछ दिनों में नहीं किया जा सकता था। साथ ही विभिन्नताओं से भरे देश में कोई भी नया सिस्टम लेन के लिए काफी मेहनत कि जरुरत पड़ती है। अफ़सोस तो यही है कि हमारे नेता कुछ जरुरी बदलावों, जैसे कि संसद की स्थापना, लोकतान्त्रिक व्यवस्था को छोड़कर कुछ और बदल नहीं पाये। सरकारी विभागों की कार्यपद्धति तथा स्थानीय निकायों में जिस तरह के बदलाव की जरुरत थी वह नहीं आई। पंचायत जैसी सालों पुरानी संस्था को संवैधानिक रूप देने में ही दशकों लग गए।

यही हाल दूसरे क्षेत्रों का भी रहा। शिक्षा को आत्मनिर्भरता की ओर उन्मुख बनाने के प्रयास की वकालत उस समय के नेताओं ने की थी। पर मैकाले की क्लर्क बनने वाली शिक्षा पद्धति अभी तक कायम है। इसके बावजूद हमने अपनी काबिलियत दुनिया के सामने रखी है। आई.टी.से लेकर प्रबंधन तक सभी ओर भारतीय पेशेवरों की धूम है। फिर भी जब मौलिक रिसर्च की बात की जाती है तो भारतीय और मुख्य रूप से भारत में किए गए शोधों की संख्या व गुणवत्ता (क्वालिटी) अन्य देशों की तुलना में काफी कम है। इसका दोष हमारी शिक्षा पद्धति में विद्यमान दोषों को जाता है।
आज उस सोच को पूरी तरह बदलने कि जरुरत है जो हर बार पश्चिम का मुंह देखती है। अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने विचारों के प्रति गौरव कि भावना जगाने कि जरुरत है।
आज देश को अपने आप को पहचानने की जरुरत है। हमें स्वयं को जानने की जरुरत है। हमने अतीत में काफी कुछ किया है। गुलामी के दिन हो या फ़िर उस समय की बनाई गई व्यवस्था में बिताये गए दिन; हमारा योगदान जीवन के विभिन्न क्षेत्रों रहा है।
आज जरुरत है की हम अपने देश को उसका खोया हुआ गौरव दिलाने के लिया जी जान से जुट जायें। और उन सभी क्षेत्रों में जहाँ सुधार की जरुरत है उनके लिए जमीं तैयार करें; ख़ुद को तैयार करें। आज किसी क्रांति की अपेक्षा तो नहीं है, पर धीरे धीरे सुधार की उम्मीद तो की ही जा सकती है। और ये काम स्वयं हमें करना है। क्योंकि ये देश अपना है किसी दूसरे का नहीं। हम अपनी उपलब्धियां ना ही किसी से बाँट सकते हैं ना ही कोई हमारे दुःख दूर कर सकता है। जो भी करना है वह हमें ही करना है; ताकि हम अपनी स्वतंत्रता को पूर्णता दे सकें। उन सपनों को पूरा कर सकें जो आजादी के समय हम करोड़ों भारतवासियों ने एक साथ देखा था।


जय हिंद

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

this is a part of my poem which i consider one of my good one. this was written after Tsunami calamity which had taken away many lives. Destroyed many buildings, roads and structures. the life of millions were disturbed. i want to pay them my tribute who died there through this poem.



इंसान क्या चीज है ये आज फ़िर बतलाता हूँ

ऊँची लहर उठाकर तुमने, बेघर बना दिया है मुझको

मंजर--तबाही हर ओर बिछा, सोचा हरा दिया है मुझको

लाशों के ढेर लगातुमने, माना रुला दिया है मुझको

फ़िर भी झुका नहीं हूँ मै, ये आज दिखलाता हूँ तुझको

गिरे खंडहर की छाती पर मैं, फ़िर से महल उठता हूँ

इंसान क्या चीज है, ये आज फ़िर बतलाता हूँ



मेरी सृजन-शीलता को, तुने आज फ़िर से पुकारा है

मेरे दृढ़ निश्चय को तुने आज पुनः ललकारा है

मेरे कदम अपनी डगर पर, फ़िर बढ़ते चले जायेंगे

तेरे ये गर्जन घनेरे, सिर्फ़ भभकी बन जायेंगे

नहीं रुका हूँ नहीं रुकुंगा, मै ये वचन दोहराता हूँ

इंसान क्या चीज है ये आज फ़िर बतलाता हूँ

बुधवार, 11 मार्च 2009

होली

मन में भर उमंग लो, जीवन को फ़िर से रंग लो
ख्वाहिशों की तरंग को, तुम अपने संग लो
मस्त हरेक अंग हो, चढ़ा लक्ष्य भंग हो
चुनौतियाँ पार करता, तुम्हारा अंतस गंग हो
चलो अपनी मंजिल की ओर, जीत हर जंग लो
बहक जाना नहीं कभी, चाहे कितना द्वंद हो
खुल गए हो गवाक्ष, जो तुम्हारे बंद हो
खुदको वो उड़ान दो, मानो तुम पतंग हो
होली के संदेश को, भरलो अपनी सांसों में
कोई हो दूजा नहीं, सबका एक रंग हो

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

VALENTINE DAY

On pleasant morning of this auspicious day

Suddenly Saint Valentine appeared on the way.

In heart it was surge of Valentine move.

It got wild and fallen in love.

Days become fragrant and night went fine.

Found the love, full of joy and truly divine.

Heart filled with pleasure and started to change.

Things appeared new and the life went strange.

Learned to know why everything should be defined.

Started to know what were others and which was mine.

‘Wh’ factor became very important in life.

Making an excuse become walk on edge of knife.

That’s the way this life takes turns.

Something we give up for something we earn.


Don’t worry what went wrong to friend of yours.

This poem is not gossip and based on true rumours.

One thing is true love is eternal and divine.

Wish this river will flow from yours to mine.

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

A step towards the Dot

A little child looks at the sky at night and ask mother "maa, what is this round thing in sky." mother replies "its our Chanda Mama". The country which has established such an intimate relationship with a celestial object moon, now stepping forward to make there relationship much closer. In other words we are moving to meet our Chanda Mama.
It is a very proud moment for all Indians when we have passed another milestone. By successful launching of PSLV from Shri Harikota we are included in the group of few nations which have capability to reach moon. We congratulate all our scientists and engineers and all the team members which are attached to the project. Still some time is required to accomplish this mission, and we are hopeful and confident that we will definitely do it without pain.
Some people ask about use of such missions? They often argue that the crores of rupees (Rs. 100 crores for this mission) can be used for another useful work like poverty eradication, welfare and development activities.
By this very expensive mission what we achieve is knowledge, experience and technical expertise to handle such a complex mission. If someone is underrating these space missions then it must be remind to them that many of new technologies and hi-tech products, electronic gadgets, safety equipments etc. they are using now are just a product of the space science.
However the major products of space research like satellites are used for benefit of people. According to G. Madhavan Nair, Chairman ISRO they are spending 80% of their economic resource for betterment of common people.
Moreover these space explorations are related to race of knowledge. In this age of knowledge one who acquires more knowledge will be the leader. One who lags behind will just be a follower. It is an established rule of human history. As you would have often heard story of an old man telling stories about his experience of world. He also gained respectful position in society due to his knowledge.

If a hungry boy asks "will this mission provide food for him".
I will tell him "no this won't. But after having your food when you raise your head at night this will give you an opportunity to proud on yourself and your nation."